SSC एग्जाम देरी 2025: जब इंतजार की घड़ी ने सपनों की रफ्तार रोक दी
सोचिए, कोई लड़का या लड़की–महीनों-पक्का सालों की मेहनत के बाद एक एग्जाम देने दिल्ली आया हो, और सेंटर के गेट पर खड़ा है, शाम होती जा रही है, घर की याद, माँ का फोन, थोड़ी घबराहट… और जवाब बस इतना: “डिले है, बाहर खड़े रहिए!”
ऐसा ही हुआ 5 अगस्त 2025 को दिल्ली के RK Digital Centre पर। कोई राजस्थान से, कोई मथुरा, कोई पंजाब-कुरुक्षेत्र—कोई पहली बार शहर आया, तो कोई बार-बार पीएचडी सी गिनती-कहानी बन चुका है। सब बस यही सोच रहे – “आज एग्जाम शांति से हो जाए, रात तक घर पहुंच जाएं!”
इंतजार और बेबसी की इंसानी झलक
4 बजे वाले बच्चे 6 बजकर 15 तक लाइन में, बार-बार अनाउंसमेंट:
“छात्रों ध्यान दें, थर्ड शिफ्ट की एंट्री 6:15 पर होगी, पेपर में देरी है, शांति बनाए रखें।”
किसी ने फोन पर घर बताया, “अभी सेंटर पे हूं, न जाने कब पेपर शुरू होगा।”
मम्मी–पापा, भाई, बहन, दोस्त सभी घर लौटने की चिंता में थे। लड़कियों की मम्मियां खास घबरायी– “अब बिटिया रात को 10-11 बजे लौटेगी, दिल्ली जैसे शहर में सुरक्षा का ख्याल कौन रखेगा?”
कुछ परिवारों की चिंता थी–अगर बच्चा एक मिनट लेट होता सेंटर के गेट पर, तो एंट्री नहीं मिलती, लेकिन आज सेंटर ही बच्चे के समय की कद्र नहीं करता!
सिस्टम की पोल—फोन, हेल्पलाइन, अफसर…सब बेबस
एडमिट कार्ड पर जो हेल्पलाइन नम्बर छपे, वहां कोई जवाब नहीं।
कभी फोन नहीं उठता, कभी बिजी, कभी मेसेज जाता ही नहीं।
सेंटर पर कोई असली अफसर नहीं, कोई लिखित नोटिस नहीं, बस एक माइक और घिसा-पिटा एनाउंसमेंट—”रुको, थोड़ी देर और।”
किसी ने ठीक कहा– “सरकार का एक हेल्पलाइन नंबर हो या सूचना कार्यालय–आखिर ऐसे टाइम पर बच्चों और माँ-बाप की फिक्र असली में किसकी जिम्मेदारी है?”
दूर–दराज से आए छात्रों की चुनौती
- कोई गाँव, कस्बे, छोटे शहर की ट्रेन-बस पकड़कर दो दिन पहले निकला–सोचा पेपर देकर शाम तक लौट आएंगे।
- कुछ ने तीन-तीन शहर प्रेफरेंस में डाले, फिर भी सेंटर दूर मिला, कई लड़कियां पहली बार अकेली सफर कर रही थीं।
- कुछ जिनका एग्जाम सिर्फ डिले की वजह से छूट गया, न कोई शिकायत में सुनवाई, न रिफंड, न अगली डेट।
घर में चिंता, सेंटर पर डर, आस-पास के लड़के-लड़कियों से पूछो “अब घर कैसे पहुंचेंगे?” तो जवाब में मुस्कान के पीछे दर्द साफ नजर आता था।
डुप्लीकेट प्रेफरेंस और सेंटर एलॉटमेंट का गड़बड़झाला
बहुत से छात्रों ने बताया — “हमने नजदीक का सेंटर भरा था, फिर भी दूर की जगह दी गई। वहीं कई स्टूडेंट्स को उनकी प्रेफरेंस से उलटा सेंटर – कार्यालय ने कोई जवाबदेही नहीं ली।”
पिछली शिफ्ट डिले हुई – तो अगली शिफ्ट वालों को गेट के बाहर खड़ा किया। कोई बोलता— “सर्वर डाउन है”, तो कोई — “कोड नहीं आ रहे”, तो कोई — “15 मिनट और…”
ऐसे में, बच्चे घंटों खड़े–भूखे–थके, और कोई शिकायत सुनने को तैयार नहीं।
सवाल और सब्र–दोनों की परीक्षा
- “क्यों नहीं दी जाती पहले से सूचना? अगर इतना ही आसान है डिले करना, तो कोई तारीख और वक्त क्यों तय करते हैं?”
- जब सेंटर खुद दो घंटे लेट कर सकता है, तो बच्चों के एक मिनट लेट होने पर एंट्री न देना कैसा इनसाफ है?
- कई लड़कियों-किशोरियों के लिए रात को दिल्ली में दो-तीन बसें बदल घर पहुंचना, कितना बड़ा रिस्क–किसी अफसर को इसकी फिक्र क्यों नहीं?
कई छात्र एग्जाम ही नहीं दे पाए, कई अधूरी जानकारी के कारण सेंटर तक पहुंचे ही नहीं। कई लोग थक कर लौट गए–सबका दर्द जुदा, सिस्टम की जिम्मेदारी फिर भी धुंधली।
निष्कर्ष: सिस्टम कब सुधरेगा?
ये कहानी सिर्फ दिल्ली नही, देशभर की है। हर बच्चा परीक्षा से ज्यादा “प्रोसेस”, “इंतजार”, “लिखत-पढ़त” और “लापरवाही” से जूझा।
परीक्षा के नाम पर लाखों लोगों का समय, पैसा, परिवार का चैन, सीधा-सीधा दांव पर होता है।
आज की व्यवस्था में पता चलता है–पेपर देना न सिर्फ दिमाग की, बल्कि धैर्य, सब्र, और परिवार की परीक्षा भी है।
सवाल सिर्फ एक है: क्या अब ऐसे सिस्टम में बदलाव आएगा? क्या हरेक सेंटर पर वक्त, सूचना और सुरक्षा को उतना गंभीर मानेंगे, जितना विद्यार्थी और उनके घरवाले मानते हैं?
आपकी राय, अनुभव या सुझाव क्या हैं? क्या आपको भी कभी ऐसे सिस्टम का दर्द या इंतजार मिला? नीचे कमेंट जरूर करें–क्योंकि हर आवाज़ मायने रखती है।